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गुलाम भारत में पत्रकारिता एक जोखिम भरा काम था , एक मिशन थी पत्रकारिता। आज पत्रकारिता बीच बाजार खडी है बिकने को तत्पर ,खुद को , खुद की गढ़ी ख़बरों को बेचने की जुगत में। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी से पूछा किसी ने कैसा हो पत्रकार ,कैसी हो पत्रकारिता ? उन्होंने कहा था ” तटस्थ “।पत्रकारिता के पतनकाल की मौजूदा दौर की पत्रकारिता और पत्रकारों को यदि इस कसौटी पर कसेंगे तों परिणाम बहुत हताशाजनक मिलेंगे।मिशन की डगर से चली पत्रकारिता विभिन्न पड़ावों से चलती आज बीच बाजार में खड़ी है। तल्ख़ हकीकत ये है की आज गलाकाट व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा ने मूल्यों ,मानकों को हाशिये पर धकेल दिया है। तकनीकी दृष्टि से पत्रकारिता समृद्ध होती नजर आती है पर नैतिकता ,मूल्यों की कसौटी पर हम पत्रकारिता के पतनकाल से रूबरू हैं। रेटिंग की होड ,एक्सक्लूसिव की मृगमरीचिका में फंसी पत्रकारिता अपुष्ट ख़बरों को परोसने से भी गुरेज नहीं करती। आलम यह है की रेटिंग की भूख ,एक्सक्लूसिव की मृगमरीचिका के शिकार स्वनामधन्य मीडिया हॉउस ख़बरें पैदा करने लगे हैं। बाजारीकरण का घुन मीडिया की विश्वसनीयता को चाट रहा है। पेड़ ख़बरों के बाद अब मीडिया का एक नया चेहरा हमारे सामने है। छवि बनाने ,छवि बिगाड़ने की सुपारी ली जाने लगी है (2014 के आमचुनाव में इसका नग्न प्रदर्शन देश देख चुका है ). जेएनयू प्रकरण में भी मीडिया दो पालों में खड़ी आपस में ही नूरा कुश्ती करती नजर आई।
आज पत्रकारिता का जो चेहरा हमारे सामने है उसका संकेत 1925 में वृंदावन में संपन्न प्रथम संपादक सम्मलेन के सभापति यशस्वी संपादक बाबू विष्णु राव पराड़कर जी ने अपने सम्बोधन में दिया था। उन्होंने कहा था ” आगे जाकर समाचार पत्रों का प्रकाशन उद्योग हो जाएगा ,जिसमे सम्पादकों की स्वतंत्रता काफी सीमित हो जायेगी। सम्पादकीय सत्ता कमजोर होगी ,प्रबंधकीय सत्ता सम्पादकीय सत्ता को संचालित करेगी।
प्रबंधकीय सत्ता के हाँथ में है आज की मीडिया का रिमोट कंट्रोल। इस रिमोट कंट्रोल द्वारा ही तय होता है आज की पत्रकारिता का चाल ,चरित्र ,चेहरा। विभिन्न चैनलों पर बेतुकी बहसों को देखें तो एंकर खुद एक पक्षकार की भूमिका में नजर आते हैं। चैनल के व्यवसायिक हितों के मद्देनजर बहस के मुद्दे तय होते हैं।
पत्रकारिता को इस पतनकाल से निजात दिलाने के लिए सम्पादकीय तंत्र को आत्ममंथन करना होगा ,प्रबंधकीय रिमोट कंट्रोल की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की रणनीति बनानी होगी। विश्वसनीयता के संकट से पत्रकारिता को उबारने का काम यदि कोई कर सकता है तो वह सम्पादक ही है। मीडिया घरानों की करतूतों को उजागर करने के लिए सम्पादकीय सत्ता को ही कोई वैकल्पिक राह तलाशनी होगी। यह जितनी जल्दी तलाशी जा सके तलाशी जानी चाहिए। एक विकल्प सोशल मीडिया की राह हो सकती है।
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