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उत्तर प्रदेश का मतदाता सियासी कसौटी पर अखिलेश -मोदी -मायावती को कसेगा ,कौन खरा उतरेगा फिलहाल कहना मुश्किल है .इस बार उत्तर प्रदेश का चुनावी समर २०१९ का सेमी फ़ाइनल होगा .यही वजह है की हर दल साम दाम दण्ड भेद की नीति पर अमल करते नजर आ रहे हैं .
अपने मूल वोट बैंक के सहारे बसपा का सारा जोर उत्तर प्रदेश के सियासी वनबास से उबरने पर है वहीँ सपा के सामने सत्ता में पुनर्वापसी की कठिन चुनौती है .सपा -कांग्रेस गठबंधन मायावती के दलित -मुस्लिम समीकरण का खेल बिगाड़ सकता है .२००२,२००७,२०१२ के चुनाव परिणामों पर गौर करें तब कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ता रहा है. २०१२ के चुनाव में उसके वोट प्रतिशत में ३.०३ प्रतिशत की बृद्धि हुई वहीँ मीडिया प्रबंधन में माहिर भाजपा के वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट आई .तुलनात्मक दृष्टि से पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने ११.६३ प्रतिशत वोट हासिल किये थे और भाजपा को मात्र १५ प्रतिशत २००२ में भाजपा जहाँ ८८ सीटों पर जीती थी वहीँ २००७ में उसके ५१ विधायक थे ,२०१२ में यह संख्या ४७ ही रह गई .यही वजह है की भाजपा को भासपा जैसे छोटे दल से भी गठबंधन करना पड़ा है और संगठन को दरकिनार करते हुए उसने दलबदलुओं की फ़ौज पर भरोसा किया है .
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से निर्णायक रहे हैं .भाजपा के उत्तर प्रदेश में अच्छे दिन के पीछे राम मंदिर मुद्दा और कल्याण सिंह के रूप में एक कद्दावर पिछड़ा नेता था .इस चुनाव में भाजपा को एक तरफ नोटबंदी के जमीनी सच का खामियाजा भुगतना पडेगा वहीँ कल्याण सिंह का कोई विकल्प उसके पास नहीं है .मुख्यमंत्री का चेहरा न देने के पीछे भाजपा की मज़बूरी समझी जा सकती है .टिकट वितरण को लेकर पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है .जिस तरह की वगावत भाजपा में देखी जा रही है उसे भाजपा के लिए शुभ संकेत तो नहीं माना जा सकता .
सपा के अंदर मची घमासान में अखिलेश यादव एक विजेता के रूप में सामने आये हैं .अखिलेश यादव अपने विकास कार्यों की पूँजी और एक जुझारू चेहरे के साथ चुनाव मैदान में उतरे हैं .कांग्रेस से गठबंधन का सपा का रणनीतिक फैसला उसकी सियासी राह को आसान बनाएगा इसमें कहीं से भी संशय की गुंजाइश नहीं है. पिछले चुनाव में सपा और कांग्रेस को मिले वोटों का प्रतिशत यदि कायम रहा तब कांग्रेस सपा गठबंधन ४२ प्रतिशत मतदाताओं की पूंजी के साथ इस चुनावी समर में कूदेगा .इस गठबंधन का साझा चुनाव अभियान फिलहाल भाजपा और बसपा के लिए एक कड़ी चुनौती है ,
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