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विधान सभा के चुनाव हों ,या आम चुनाव सियासी खलीफा अपनी हरकतों से संवैधानिक संस्थाओं को ठेंगा दिखाते रहे हैं .चुनाव सुधार के लिए सिर्फ और सिर्फ बातें होती हैं उनका परिणाम जमीन पर दिखता नहीं है.मौजूदा विधान सभा चुनाव के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट का एक ऐतिहासिक फैसला आया कि जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगना अनुचित होगा . एक उम्मीद जगी थी कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का राजनैतिक दल सम्मान करेंगे .
चुनाव मैदान में सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश कि धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं .दुस्साहसिक यह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और आदर्श चुनाव आचार संहिता में भी स्पष्ट कहा गया है कि जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगना अनुचित होगा ,राजनैतिक दल इसकी धज्जियाँ वाचिक ही नहीं अपने चुनाव घोषणा पत्र के माध्यम से भी उड़ा रहे हैं .भारतीय जनता पार्टी इस लिहाज से सबसे आगे है जिसने उत्तर प्रदेश के लिए जारी अपने संकल्प पत्र में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को चुनावी मुद्दा बनाया है .
बहुजन समाज पार्टी कि सुप्रीमो खुल्लम खुल्ला अपनी चुनावी रैलियों में मुसलमानों से वोट की अपील कर रही हैं .संवैधानिक संस्थाओं को नकारने का यह दुस्साहस लोकतंत्र के लिए कत्तई शुभ संकेत नहीं है .संवैधानिक संस्थाओं को सियासत तब तक नकारती रहेगी जब तक संवैधानिक संस्थाएं सख्त कदम उठाने से गुरेज करती रहेंगी . सुप्रीम कोर्ट के आदेश कि अवमानना करने ,आदर्श आचार संहिता को ठेंगा दिखाने का शर्मनाक सियासी खेल तब तक जारी रहेगा जब तक इस खेल को लगाम देने कि संवैधानिक व्यवस्था नहीं की जायेगी . होना तो यह चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट को इस सियासी दुस्साहस का स्वतः संज्ञान लेना चाहिए था ,दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका .
सुप्रीम कोर्ट और निर्वाचन आयोग को ऐसी व्यवस्था पर विचार करना चाहिए कि मतदाता को प्रलोभन देने ,धर्म ,जाति का सियासी लाभ उठाने के लिए प्रयोग करने वाले प्रत्याशियों को ही नहीं ऐसे दलों पर भी एक निश्चित समय सीमा के लिए चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया जा सके .यदि ऐसा हो सका तब हमारा लोकतंत्र भी मजबूत होगा और संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान भी कायम रह सकेगा .
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