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2017 के जनादेश ने कमोबेश 2014के जनादेश को पुष्ट किया है। इस जनादेश ने यह सिद्ध कर दिया है की भारतीय राजनीति में जो बेहतर तरीके से मार्केटिंग करने का हूनर रखेगा ,जो आक्रामक प्रचार शैली के जरिये विरोधियों के खिलाफ नकारात्मक सन्देश जनता तक पहुँचाने में माहिर होगा ,जिसके पास उसके नकारात्मक सन्देश को प्रचार माध्यमों के जरिये खबरिया चैनलों पर होने वाली डिबेट्स में मजबूती के साथ प्रस्तुत करने वाली थेथर टाईप प्रवक्ताओं की टीम होगी,जिसका प्रबंधन बूथ स्तर तक मजबूत होगा ,जो जनता को मुंगेरी लाल के हसीन सपने इस चालाकी से बेचने की कला में पारंगत होगा की अवाम उन सपनो के साकार होने का मुगालता पाल बैठे चुनावी समर का सिकंदर वही होगा। इन कसौटियों पर नरेन्द्र मोदी 2014 में खरे उतरे और तमाम विपरीत हालातों के वावजूद 2017 के चुनाव में भी खरे उतरे। कभी चाटुकारिता के लिए कहा गया था “इंदिरा इज इंडिया ,इंडिया इस इंदिरा ” आज नरेन्द्र मोदी ने सियासत में जो कद हासिल किया है उसमे यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मोदी आज भाजपा ही नहीं उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा उसके तमाम आनुषांगिक संगठनों के पर्याय बन कर उभरे हैं। अथक परिश्रम के साथ साथ प्रभावी चुनावी रणनीति ने उनको कम से कम भगवा परिवार में शीर्ष पुरुष के रूप में स्थापित किया है।
2017 का जनादेश बताता है की विपक्ष ने 2014 से सबक नहीं लिया ,बिहार में मोदी लहर को रोकने के लिए किये गए महागठबंधन के सफल प्रयोग को दोहराने में विपक्ष नाकाम रहा है।
एक बात हैरान करने वाली यह रही की बिहार में महागठबंधन का रायता फ़ैलाने का काम जिन मुलायम सिंह यादव ने किया था उन्ही ने उत्तर प्रदेश में सपा कांग्रेस गठबंधन का रायता फ़ैलाने में कोई कोर कसर न छोड़ी। सपा के वोट बैंक रहे मुस्लिम मतदाताओं को ऐन चुनावी बेला में मुलायम ने सपा से बिदकाने की नीयत से एक निहायत गैर जिम्मेवाराना बयान दे डाला की अखिलेश ने कभी मुसलमानों के हित में काम नहीं किया। उनकी भूमिका शोध का विषय है।
मायावती के लिए जनादेश चौंकाऊ भी है और उनको एक कड़ा सन्देश भी देता है की उनको अपने सियासी फार्मूले पर आत्म मंथन करना होगा। जिस रीति -नीति से ,जिस डंडे से वह अब तक पार्टी को हांकती रही हैं वह अप्रासंगिक हो चूका है। मायावती द्वारा ईवीएम की विश्वसनीयता पर खड़े किये गए सबालों को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि वह पहली राजनेता नहीं हैं जिसने ईवीएम की विश्वसनीयता पर सबाल खड़े किये हों। 2009 में वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी और भाजपा सांसद सुव्रमण्यम स्वामी भी ईवीएम के दुरूपयोग की शिकायत कर चुके हैं।भाजपा सांसद सुव्रमण्यम स्वामी तो ईवीएम के दुरूपयोग की शिकायत लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गए। परंतु मायावती को यह समझना होगा की उनके बेस वोटरों में सेंधमारी का जो प्रयोग भाजपा ने 2014 में किया था वही प्रयोग 2017 में दोहराया गया। यदि मायावती इस मुगालते में जी रही हैं की चुनावी रैलियों में भाषण के हार्वेस्टर से वोट की फसल काटी जा सकती है तब आने वाला वक्त उनको और कड़े सबक देने वाला है।
सपा इस चुनाव में कई मोर्चों पर लड़ रही थी जिसमे सबसे कड़ा सबसे बड़ा मोर्चा सपा के अंदर मचे घमासान का था। रणनीतिक दृष्टि से कांग्रेस से किया गया गठबंधन देर से उठाया गया एक सही फैसला था। आनन -फानन हुए इस गठबंधन की स्थिति चुनावी चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु जैसी थी। यदि इस गठबंधन को तैयारी का पर्याप्त समय मिला होता तब निःसंदेह देश और प्रदेश की राजनीति का एक नया अध्याय उत्तर प्रदेश की धरती से शुरू हुआ होता।
विपक्ष के पास तैयारी की दृष्टि से अभी भी बहुत कम समय बचा है। 2017 के जनादेश से सबक लेते हुए यदि विपक्ष अभी से 2019 की तैयारी में जुटे और चुनाव प्रबंधन में जुट जाए ,जनता से जुड़ने की एक विस्तृत्त कार्य योजना पर कार्य शुरू करे तब जीती बाजी जीत सकता है। राजनीती संभावनाओं का खेल है परिवर्तन उसका नियम है जो कमोबेश मोदी पॉलिटिक्स पर भी लागू होती है।
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